मैं हू बेटी इस भारत की, पर है मुझको कोई गर्वे नही. इंसानो को रहने वाले यहा, है आती कोई शर्म नही. जब भी मैं घर से निकली , लोगो ने घूरा और लूटा. जिसने भी प्यार से पूछकरा, मन मे होता कुछ और था. हर बेटी के घर मे भी यहा, रहना वाला दुषासन है. कभी तोड़ दिया कभी छोड़ दिया, हर कोई यहा पे दुश्मन है. जो किया विरोध तो मार दिया, कभी जला दिया कभी राख किया. कोई अपना दिखता ही नही, सब मे हैवान ही दिखता है. फिर भी दुनिया ये क्यो आख़िर, मुझपे ही आरोप लगती है. कभी इस तरफ कभी उस तरफ, हर तरफ से ताने सुनती है. कहती है क्यो पहने कपड़े ऐसे, क्यो तू बाहर जाती है. पर अये भारत अब हर लड़की , तुझ पे ये सवाल उठती है. क्यो हर मा बेटी को ही , बेटे को क्यो ना समझती है. क्यो बेटी ही सहती है सब, क्यो वो ही छुपती जाती है. मैं हू बेटी इस भारत की, पर है मुझको कोई गर्वे नही. इंसानो को रहने वाले यहा, है आती कोई शर्म नही.
nice compose :)
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